साहित्य की विभिन्न विधाओं, मसलन–कहानी, उपन्यास, कविता और नाटक के साथ-साथ यात्रा वृत्तांत भी शुरुआत से मेरी प्रिय विधा रही हैं। यूं तो मैंने बी.ए. और एम.ए. के दौरान कई यात्रावृत्तांत पढ़े हैं। लेकिन वाणी प्रकाशन से शाया हुए ‘मुअनजोदड़ो’ ने मुझे बहुत दूर तक प्रभावित किया।
ऐसा होने और कहने के पीछे कई कारण हैं। जिसमें से एक है इसकी शुरुआत। एक बानगी देखिए -” डाकू भारत में भी हैं। लेकिन मुझे अब तक देश मे ऐसे किसी रास्ते से गुज़रने का मौक़ा नहीं मिला है, जहाँ पहले चेतावनी दी जाती हो कि होशियार होकर चलें, आगे डाकू हैं!” बहरहाल।
दस सफ़े के छोटे क़द के काला-सफ़ेद अखबार जनसत्ता को बुलंदियों पर पहुंचाने वाले अदीब, पत्रकार और संपादक ओम थानवी द्वारा लिखित, एक महान सभ्यता पर आधारित और विभिन्न-चित्रों से सुसज्जित मुअनजोदड़ो नामक यह यात्रावृतांत सही मायनों में एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। यदि सफ़दर हाशमी के शब्दों में कहूं तो मुअनजोदड़ो नामक यह क़िताब बातें करती है–
“बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।”
मुअनजोदड़ो में यात्रा भी है, इतिहास भी, संस्कृति भी, कभी न ख़त्म होने वाली स्मृतियां भी, शोध भी और दर्शन की–सी कुछ बहुत गहरी बातें भी जो अंदर तक मनुष्य होने, सभ्यता और संस्कृति के मायनों के बारे में सोचने और अपनी आत्मा में झांकने को मजबूर करती हैं।

बक़ौल ओम थानवी “मुअनजोदड़ो की खूबी यह है कि इस आदिम शहर की सड़कों और गलियों में आप आज भी घूम-फिर सकते हैं. यहाँ की सभ्यता और संस्कृति का सामान चाहे अजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था, अब भी वहीं है. आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठ टिका कर सुस्ता सकते हैं, वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पाँव रखकर सहसा सहम जा सकते हैं, जैसे भीतर अब भी कोई रहता हो.
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रसोई की खिड़की पर खड़े होकर उसकी गंध महसूस कर सकते हैं. शहर के किसी सुनसान मार्ग पर कान देकर उस बैलगाड़ी की रुन-झुन भी सुन सकते हैं जिसे आपने पुरातत्व की तस्वीरों में मिट्टी के रंग में देखा है.” बहरहाल।मुअनजोदड़ो को पढ़ते हुए एक बात जो बार-बार उभरकर आती है वह यह कि वर्तमान संकटों से टकराते हुए यह दस्तावेज(यात्रावृत्तांत) हमें एक विचारशील दृष्टि देता है और आप सोचते हैं की मुअनजोदड़ो से आपका कोई बहुत पुराना रिश्ता है जो पाकिस्तान में है।
मुअनजोदड़ो आज एक खंडहर है, जिसमें उसे जीवंत बनाने वालों का कोई निशान नहीं है; लेकिन मूलतः उन लोगों के बारे में न जान पाना जो हमारी धरती पर रहे आपको अपनी सीमाओं का परिचय देता है और यह मानवीय जिज्ञासा जो चाँद-तारों के पार जाने की है, आग की तरह जल उठती है। ”
यह सच है कि किसी आँगन की टूटी -फूटी सीढियाँ अब आपको कहीं नहीं ले जातीं; वे आकाश की तरफ अधूरी ही रह जाती हैं। लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर खड़े हैं; वहाँ से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झाँक रहे हैं।” इन पंक्तियों में जितनी गहराई है वह किसी मार्मिक कविता से कम नहीं है।
इतिहास के पार झाँकना निःशब्द की ओर पहुँचना है। यह उस संस्कृति की गूंजों में शान्ति पाना है जो मानवीय विश्वास का आदि-उदाहरण बने हुए है। “अजायबघर में प्रदर्शित चीज़ों में औज़ार तो हैं पर हथियार नहीं हैं।” यहाँ जनता राम-राज्य का सपना देख -देखकर ही अपना जीवन काट रही है, लेकिन यह खोजना की सभ्यताएँ बिना हथियारों के भी चल सकती हैं, समाजवाद की पहली मिसाल सिंधु घाटी सभ्यता को ताज महल के नग की तरह सुंदर बनाती है।
किसे पता था कि दुनिया की सबसे संपन्नतम सभ्यता का गौरव प्राप्त करने वाली सभ्यता–मुअनजोदड़ो की खुदाई में सरकार इतनी बेरुख़ी दिखायेगी की खुदाई का काम ही बंद हो जाएगा। इधर हिंदुस्तान के इतिहासकारों द्वारा भावुकता में तरफ़दारी की-सी तथ्य रहित व्याख्या भी नोटेबल है। उस पर मेरे लिये सबसे मज़ेदार प्रश्न यह है कि हम हथियार धारियों का जन्म इस शान्त रस में डूबी समृद्ध संस्कृति से हुआ है और यह मानने की ज़िद क्यों है? हमारे पुरातत्वविदों और इतिहासकारों की यह धारणा मौजूदा संस्कृति की कालिमा प्रस्तुत करती है।
बहरहाल। अंत में केवल इतना ही कि बीसवीं शताब्दी के अज़ीम अदीब ‘फ्रेंज काफ्का’ ने जो बात एक किताब के विषय मे कही थी कि “A book must be the axe for the frozen sea within us.” अर्थात एक क़िताब को हमारी आत्मा के भीतर जमी बर्फ़ को तोड़ने के लिए कुल्हाड़ी होना चाहिए। मुअनजोदड़ो इस कथन को बख़ूबी रूप से पूरा करती है। “शौक़-ए-दीदार अगर है तो नज़र पैदा कर।”
समीक्षा दुबे। भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से हिन्दी भाषा और साहित्य में परास्नातक। पढ़ने-लिखने के अलावा फोटोग्राफी और संगीत गायन में विशेष रुचि।