प्रिय ललित
आप कबसे कहते आ रहे हैं कि ख़त लिखिए, ख़त लिखिए, किसी को भी लिखिए, कुछ तो लिखिए। मेरी समस्या क्या है बताऊं ? हम दिल रखते हैं लोग दाद दे देते हैं बस इस वजह से कुछ लिखते नहीं हैं। हां सच में ! मेरे लिए जब तक वो समय आता कि किसी से दूर होकर उससे बात करने की ज़रूरत महसूस होती, ख़त का वक़्त जा चुका था।
हां कुछ अच्छे प्यार भरे ईमेल्स मैंने ज़रूर लिखे थे लेकिन उन्हें सम्हाल कर नहीं रखा कभी। गुस्सा आया और एक ही क्लिक में काम ख़त्म। ख़त भी लिखे होते तो गुस्से में फाड़े जा सकते थे लेकिन शायद ऐसा करना मुश्किल होता। कागज़ पर लफ्ज़ ऐसे उतरते हैं जैसे हाड़मांस में खून उतर आया हो। उनके उस शरीर को फाड़ना आसान नहीं होता होगा शायद। इमेल को डिलीट करना उतना मुश्किल नहीं।तो जब कभी ख़त नहीं लिखा तो ये ख्याल आया कि जब भी लिखूंगी कोई प्रेम पत्र ही लिखूंगी उसका नाम रखूंगी ‘गुलाबी ख़त’।
लेकिन लिखा नहीं अभी तक। शिद्दत में कमी मालूम होती है। ख़त लिखना अपने आप में रोमांटिक है। अपनी भावनाओं को कुरेद- कुरेद कर लिखना और पढ़- पढ़ के फिर से फ़िदा होते रहना। खैर.. अब ये प्रेम पत्र तो नहीं पहला पत्र ज़रूर है। पहला पत्र आपके नाम। ठीक भी है। पत्र लिखने के लिए प्रेरित तो आपने ही किया। वैसे पत्र किसे लिखा जाए इसके लिए कॉम्पटीशन टफ था। मां, पापा, भाई , पति , दोस्त, दुश्मन सभी तो हैं जिनसे कितना कुछ कहना है बताना है। मां के लिए तो एक ख़त से बात भी नहीं बनेगी। श्रृंखला निकालनी पड़ेगी।
मेरी बच्ची: तुम्हारी तरफ आती हर दया- अफ़सोस भरी नज़र को पहले मुझसे टकराना होगा
इसलिए आसान लगा कि शुरुआत आपसे करें। फेसबुक पर आपको जब फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी थी तो वजह थी बुद्धिजीविता की झलक जो मैंने ललित में नहीं “फुलारा’ में देखी। लखनऊ से दिल्ली गए थे; बुद्धिजीविता – शब्द और अर्थ, दोनों से नया नया परिचय था और परिचय क्या क्रश ही कहिये। अभी तक है। गाहे-बगाहे मुश्किल में डाल ही देता है। तो खैर.. अच्छा लगा ये देख कर कि कोई मेरे सरनेम वाला शख्स वैचारिक स्तर पर सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है, पत्रकार है, मन में आया “ऐसे कैसे? हमारे यहां तो ये सब चलता ही नहीं ?” बस मैंने कहा पता करते हैं ये तल बाखेयी का है मल बाखेयी का है या पधानो बाखेयी का है। लेकिन आप तो दूसरे ही गांव के ठहरे बल।
मन में आया ये भी होगा कोई भागि, समय पर निकल आया होगा पहाड़ो से तब इतना सोच पा रहा है। लेकिन यहां मैं यह स्वीकार करना चाहती हूँ कि ये परिपक्व सोच नहीं थी और मैंने पहाड़ की दुनिया भी इतनी देखी नहीं थी। ये दुर्भाग्य ही कहिये पश्चिमी अल्मोड़े का, कि अल्मोड़े में तो हुए अल्मोडिया नहीं हो सके। चिराग तले का अंधेरा रहे।खैर अब तो LED जल रहा है सबको रौशनी भी मिल रही है बल। बहुत सारी बातों को शुरू करके छोड़ दे रही हूं क्यूंकि अपने आप में एक discourse है वो..भटकती बहुत हूं मैं, मेरे कॉलेज के एक प्रोफेसर की ही तरह, लेकिन वो भटकते थे क्यूंकि उन्हें बहुत कुछ पता था। मैं भटकती हूं क्यूंकि मुझे बहुत कुछ आधा- अधूरा पता है। जो भी हो यही भटकाव मुझे आप तक लाया।तो वो पहला इम्प्रैशन जो था आपका मुझपर वो अभी तक कायम है और अब तो और पुख्ता हो गया है।
http://
शायद 6-7 साल हो गए होंगे हमें एक दूसरे से परिचित हुए जिसमे हम अभी तक एक बार भी मिले नहीं पर निःसंकोच आप पर अपनी उम्मीदों का भार मैंने डाला है। इस परिचय से औपचारिकता को कम करने की कोशिश के क्रम में, ये पत्र आप चकराता आने के निमंत्रण के रूप में स्वीकार करें। मेरी यायावरी निश्चित ही आपके लिए इस क्षेत्र को जानने में सहायक होगी। थोड़ा लिखा है ज्यादा समझिएगा। आप समझदार हैं , सही ही समझेंगे।
आपकी
हम सरनेम
( यह ख़त नीतू फुलारा ने लिखा है। नीतू समाजशास्त्र में पीएचडी हैं। महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास विभाग में बाल विकास परियोजना अधिकारी हैं। उत्तराखंड के चकराता में तैनात हैं। )