मरने से किसी का दोष कम नहीं होता, लेकिन किसी पर आरोप लगाने भर से कोई दोषी नहीं होता। इस मामले में न सही, किसी और मामले में ही सही औरत के नजरिए से भी सोचिए। एक 5-7 साल की बच्ची न प्रतिरोध कर सकती है और न अपनी आवाज उठा सकती है। इसके बाद जब वह बड़ी हो जाती है तो कथित लोक-लाज, समाज के हम जैसे ठेकेदार, जो लड़की के साथ कभी खड़ा नहीं होता, उस घर परिवार की कथित बदनामी, शादी के बाद खोखले दाम्पत्य जीवन के टूटने का खतरा, उसके बाद नालायक बच्चों के नज़र में गिर जाने का खतरा। ऐसे में एक औरत जीवन भर बोलने का हिम्मत ही जुटाती रह जाती है और बिना बोले मर जाती है।
बर्बर सीना चौड़ा कर घूमते रहते हैं और वह भी शराफत (बिना आरोपों वाली) की ज़िन्दगी जी कर मर जाते हैं। कोई अंगुली नहीं उठती। औरत बोलती तब है, या यूं कह लीजिए कि हिम्मत तब आती है, जब उसे इन कंडिशन में से या तो किसी चीज, रिश्ते-नाते, घर-परिवार, समाज की परवाह नहीं रह जाती या फिर उसके जीवन में आने वालों में से कोई एक भी सच में लायक होता है और उसे हिम्मत देता है। हालांकि कथित समाज परिवार में बदनामी तो औरत की तब भी होती है, लेकिन उसे परवाह नहीं रह जाती। इसलिए बदनाम औरतें ही समाज में परिवर्तन और क्रांति लाती हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर देख लीजिए।
ऐसे में एक सामान्य महिला को बोलने की हिम्मत जुटाने में सालों-साल गुजर जाते हैं। इसलिए 10 साल बाद क्यों बोली, 50 साल बाद क्यों या उत्पीड़क के मरने के बाद क्यों? ये प्रश्न बेहद अस्वाभाविक ही नहीं, बल्कि दमनकारी साजिश है। हां, इस तरह के अभियानों में कुछ मामलों में गफलत भी हो सकती है। जैसे बच्ची समझ न पाई हो, उसे गलतफहमी हो गई हो। औरत पितृसत्तात्मक समाज के दबाव या प्रभाव में आकर (किसी विचारधारा या व्यक्ति को बदनाम करने की साज़िश भी हो सकती है) उसे मजबूरी में या खुद को प्रभावशाली बनाने के मुगालते में या फिर मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है ( पीड़ित होने पर जो हमदर्दी मिलने लगती है, उसे वह अच्छा लगने लगता है। इसके बेहतरीन उदाहरण कंगना रनौत और एसिड अटैक सर्वाइवर उनकी बहन रंगोली हैं। इन दोनों के रोज के बयान को देखेंगे तो आपको ऐसा लगेगा कि इन्हें सहानुभूति पाने में आनंद आने लगा है)।
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बाबा के मुद्दे पर आने से पहले एक बात और। यौन उत्पीड़न के बच्चियां ही नहीं, बच्चे भी आसान शिकार होते हैं। 10 में से 8 बच्चे-बच्चियां बड़े होने से पहले तक या तो इसके शिकार हो चुके होते हैं या उनको शिकार बनाने की नाकाम कोशिशें हो चुकी होती है। मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि हमारे आस-पास भी कई ऐसे पुरुष होंगे, जो जानते होंगे कि उनके घर-रिश्तेदार की नज़र उन पर थी या वह बचपन में इस तरह के दौर से गुज़र चुके होंगे। लेकिन उनमें से अधिकतर ने यह बात किसी को नहीं बताई होगी। और मैं यह भी जानता हूँ कि वह अपने साथ ही इसे लेकर दफन हो जाएंगे। इतना ही नहीं यह भी जानिए की अपनी कथित प्रतिष्ठा के लिए, जो आजतक हम आप जैसे लोग चुप हैं, इसी का फायदा वह ‘शरीफ’ लोग उठाते हैं।
न जाने कितने व्यक्तियों को मनोरोग देकर वह ‘इज़्ज़त’ के साथ मर जाएंगे। और हमीं सबकुछ जानते-बुझते हुए भी उन्हें कांधा देने भी जाएंगे। लेकिन किसी को कुछ नहीं बताएंगे। जरा सोचिए, पुरुष प्रधान समाज में जब पुरुषों में इतनी हिम्मत नहीं तो स्त्रियों में कहां से आएगी, जो पूरी ज़िंदगी पुरुषों पर ही निर्भर रहती है। ऐसे में बाबा और गुनगुन जी के मामले में पहुंचने से पहले हमें बेहद सावधानी बरतना होगा। आरोप लगते ही न हम बाबा को दोषी मान सकते हैं और न ही गुनगुन जी को साजिशकर्ता। किसी पक्ष से लठ लेकर किसी पर पिल पड़ने से पहले हमें ठंडे दिमाग से सोचना होगा। इस मुद्दे पर बातचीत होनी चाहिए, लेकिन बेहद सावधानी से। थोड़ा वक्त लगेगा, फिर चीजें साफ हो जाएंगी। अगर बाबा ने ऐसा किया है, खासकर तब, जब गुनगुन जी के आरोप में बाबा को मानसिक बीमार बताया गया है, तो तय है कि कुछ और लोग भी सामने आ सकते हैं, क्योंकि अगर उन्हें ऐसा कोई रोग होता तो वह खुद को रोक ही नहीं पाते होंगे।
ऐसे में इस बात की भी संभावना है कि उनके आसपास के लोगों को उनकी बेचैनी, हावभाव या किसी अन्य तरीके से पता चला हो। हालांकि ऐसा कुछ बाबा के बारे में हिंदी साहित्य की बेपर की उड़ती महफिलों में भी सुनने को कुछ मिला नहीं है, लेकिन हो सकता है कि अब उनमें से कोई ठोस साक्ष्यों के साथ सामने आ जाए। इसलिए मुझे लगता है कि इस या उस पक्ष की तरह बात करने से ज्यादा बेहतर है कि बात हो ज़रूर, लेकिन इस तरह की चीजें साफ होने तक किसी के भी गरिमा का हनन न हो। चीजें साफ करने की कोशिश की जाए। वक़्त और थोड़ी तफ्तीश के बाद सबकुछ स्पष्ट हो जाएगा। यह भी की बाबा मामले में अगर कोई अन्य सामाजिक राजनीतिक कारण हैं, जिसकी इस दौर में बहुत अधिक संभावना दिखती है तो वह भी सामने आ जाएगा। एक बात और, इस तरह के एक दो छोटे-मोटे उदाहरणों को देखकर कभी इस या कभी उस पक्ष में अपनी सुविधानुसार जाकर किसी आंदोलन को कमजोर नहीं करना चाहिए। Me Too एक बेहद मजबूत आंदोलन है। यह पुरुष सत्तात्मक समाज में बेहद ज़रूरी है। इसे जारी रहना चाहिए। ताकि लंपट पुरुष समाज सुधरे या न सुधरे, उसमें डर बना रहे।
(मज्कूर आलम वरिष्ठ पत्रकार हैं। कबीर का मोहल्ला नामक चर्चित किताब लिख चुके हैं।)